आज भी याद है मुझे बचपन के वो कुछ खुश नसीब पल,
जहाँ आंखों में बहुत से सपने थे और दिलों में कोई झूठ ना था।
जहाँ पापा ने मेरी उँगली पकड़कर मुझे चलना सिखाया था,
वहीं नीचे गिरकर दोबारा से हिम्मत कर उठना भी सिखाया था।
याद है मुझे कैसे वो अपने कंधो पर मेरा स्कूल बैग टांगकर मुझे स्कूल छोड़ने जाते थे,
अपनी उन प्यारी सी बातों से कैसे वो सबको हंसाते थे।
बहुत सुकून मिलता था घर आकर पापा को मुस्कुराते हुए देखकर,
उनसे नाराज़ हो जाती थी मैं कभी कभी उनसे डांट खाकर।
याद है मुझे मम्मी की डाँट से बचने के लिए मेरा पापा के पीछे छिप जाना,
तो कभी कभी पापा का खुद डाँट खाकर मुझे मम्मी से बचाना।
हर त्यौहार खुद वही पुराने कपड़े पहन, हमे नए कपड़े दिलाना,
मेरी हर ख्वाइश पूरी करने के लिए हमेशा पैसे जुटाना।
मेरे हर अतरंगी सवाल पर उनका वो मुस्कुराना,
मेरी मासूम बातों पर उनका खिलखिलाकर हंस जाना।
सुबह से लेकर रात तक उनको अपनी नौटंकियों से परेशान करना,
और रात को उनकी गोदी में सिर रख के सो जाना।
अपनी गोदी में उठा कर मेरे भविष्य के लिए ढेर सारे सपने बुनना,
अपने सपनों को छोड़ मेरे सपनों को चुनना।
कुछ ऐसे ही हैं मेरे पापा।
कहते है माँ घर की रौनक होती है,
लेकिन पापा के बिना ज़िन्दगी सूनी होती है।
चार दिन भी कोई दूसरा नही निभा सकता,
जो किरदार एक पिता पूरी ज़िंदगी निभाते हैं।
कहते हैं ना पापा वो शक़्स है जो खुद हज़ारों दुख झेलकर,
अपने बच्चों के जीवन को बेशुमार खुशियों से भर जाते हैं।
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