यूँ तो बचपन की बहुत सी यादें हैं जो मेरे चेहरे पर एक लम्बी सी मुस्कान लेकर आती हैं लेकिन उनमे से कुछ यादें ऐसी हैं जो आपको अपनी यादों से कुछ हद तक मिलती जुलती लगेंगी। ये यादें हैं मेरे बचपन में गर्मियों की छुट्टियों की। गर्मियों की वो लम्बी छुट्टी जिसका हम सभी पूरे साल बेसब्री से इंतज़ार करते थे और इतना बेसब्र होना बनता भी था क्योंकि साल भर में एक गर्मी की छुट्टी ही तो थी जब इतना लम्बा समय घर पर रहने को मिलता था। ना सुबह जल्दी उठकर स्कूल जाने की टेंशन, ना हर दिन के क्लासवर्क और होमवर्क की टेंशन, ना टीचर की डाँट की टेंशन, सिर्फ मज़े ही मज़े। वो बात अलग है कि एक लम्बा चौड़ा हॉलिडे होमवर्क ज़रूर मिलता था जिसे देखकर हम सबकी शक्लें भी बन जाया करती थी। पर ये तो ज़रूरी था ना वरना इस लम्बी छुट्टी के बाद हम तो भूल ही जाते कि हम विद्यार्थी थे।
छुट्टियों का वो बेसब्री से इंतज़ार करना
इतना लम्बा समय घर पर बिताने की ख़ुशी तो थी ही पर ये ख़ुशी इस बात से दुगुनी हो जाती थी कि हर छुट्टी में मेरी बुआ और उनके दोनों बच्चे यानी मेरे भाई हमारे घर आया करते थे। याद है मुझे कैसे छुट्टी पड़ते ही हम इंतज़ार करते थे बुआ के फ़ोन का और जिस दिन वो फ़ोन कर बताती कि वो आने वाले हैं, उस दिन तो मानो दिवाली सी लगती थी। सारा दिन मेरा छोटा भाई और मैं दरवाज़े पर जाकर देखते कि वो आये या नहीं और बार बार उन्हें दरवाज़े पर ना देख मायूस होकर अंदर चले जाते। ये अंदर बाहर तब तक चलता था जब तक वे आ ना जाएं और भई ये बेसब्री तो बनती थी, आखिर ये एक ही तो समय था जब हम सबको इतना समय साथ में खेलने को मिलता था।
नीले रंग का स्कूटर
मुझे अपने फ़ूफ़ाजी का वो नीले रंग का स्कूटर आज भी याद है जिसमे वे चारों बैठकर आते थे। बड़ा वाला भाई आगे खड़ा रहता था और छोटा वाला बुआ के साथ पीछे बैठता था। अपनी इस सवारी पर बैठे हुए हमारे ये मेहमान, जिनका इंतज़ार इतनी बेसब्री से रहता था, जब घर पहुंचते तब हम ऐसे गले मिलते थे मानो कितने सालों से एक दूसरे को देखा ही ना हो। बचपन के प्यार में मासूमियत ही इतनी होती है। एक दूसरे से मिलने की ख़ुशी, बहुत दिन तक साथ रहेंगे इस बात की ख़ुशी, मिलकर खूब खेलेंगे इस बात की ख़ुशी, ना जाने किस किस बात की ख़ुशी होती थी हमे।
मेरी बुआ और भाई हमेशा ही छुट्टी में घर आते थे तो हमारे सभी पड़ोसी भी उन्हें अच्छे से जानते थे। उनकी खैरियत पूछते और हमारे दोस्त मेरे भाइयों के भी दोस्त बन गए थे। (यदि आप भी एक छोटे शहर से हैं तो समझ पाएंगे क्योंकि छोटे शहरों में ऐसा ही होता है। आज भी जब मेरे पड़ोस में किसी की शादी होती है तो शादी का कार्ड सिर्फ हमे नहीं, मेरे करीबी रिश्तेदारों को भी दिया जाता है)।
अब बात कुछ ऐसी थी कि हमारा बस चलता तो हमारे पॉँव घर में किसी हाल में ना रुकते लेकिन इतनी धूप में बाहर खेलने कोई जाने ना देता था तो हम सब इतंज़ार करते थे शाम होने का। आज भी जब सोचती हूँ तो हंसी आती है कि कैसे हमें घर जेल जैसा लगता था और शाम तक इंतज़ार करना मानो कैद।
घर-घर और छुपन-छुपाई
अब खेलना तो ज़रूरी था क्योंकि छुट्टी इसीलिए मिली थी तो हम घर के अंदर ही शाम होने तक कुछ खेल लिया करते थे। कभी घर-घर तो कभी छुपन-छुपाई। हाँ एक बात मैं भूल ही गयी, घर में एक ही टीवी था और हम सबको कार्टून देखना होता था लेकिन किसी को टॉम एंड जेरी, किसी को दूसरा कार्टून। इसी चक्कर में सुलह हो ना पाती थी और रिमोट पकड़कर होती थी खींचातानी। ये खींचातानी तब तक चलती थी जब तक मम्मी की पिटाई ना मिल जाए। अब मम्मी की पिटाई इस बात पर थोड़ी निर्भर करती थी कि हमारी छुट्टी है और मज़े करना हमारा हक़ है, वो तो पिटाई है कभी भी हो सकती है। पर मानना पड़ेगा, उस पिटाई में दम बहुत था, बहुत देर तक घर में शान्ति का माहौल बना रहता था।
खेल-खेल के बीच में लड़ाई
मम्मी मेरी खाने के मामले में थोड़ी स्ट्रिक्ट थी इसीलिए मै अपने भाइयों के कन्धों पर बन्दूक रखकर चला दिया करती थी। अब जो भी खाने का मन हो उन्हें जाकर बोल दो, मम्मी उन्हें थोड़ी मना करती। शाम होते ही तूफ़ान की स्पीड से हम निकल जाते थे मौहल्ले में। कोई बच्चा किसी को आवाज़ देता तो कोई किसी को। कभी हम पकड़म पकड़ाई खेलते, कभी बंदी चैन तो कभी बर्फ पानी और कई बार तो आपस में लड़ाई भी हो जाती थी जो सिर्फ बच्चों तक नहीं रहती थी क्योंकि लड़ाई होने के बाद घरों में शिकायत की जाती थी, घरवालों की डाँट पड़ती थी , कई बार लड़ाई करने वाले बच्चों की माएं ही आपस में लड़ने लगती थी और कई बार लड़ाई सुलझा लिया करती थी। मेरा बड़ा भाई यानी बुआ का बड़ा बेटा बचपन में बहुत गुस्सैल और लड़ाकू हुआ करता था इसीलिए हम सब उससे ज़रा खौफ में रहा करते थे पर साथ ही मौहल्ले में अकड़ में घूमा भी करते थे क्योंकि भाई था अपना, हमसे कोई लड़ने नहीं आता था।
खेलते खलेते पसीने से लतपत हो जाया करते थे, पूरे मोहल्ले में इधर से उधर दौड़ना, कूदना, चिल्लाना; एक अलग सी ही रौनक लगी रहती थी। खेलते खेलते बीच में दूध पीने के लिए घर बुला लिया जाता तो मूड इतना खराब हो जाता था मानो कोई इंटरनेशनल मैच चल रहा हो जिसे बीच में ही रोकना पड़ गया। फटाफट से भागकर दूध का वो गिलास खत्म कैसे होता था हमसे पूछो और दूध की मूंछे बनाकर वापिस मैदान में लौट जाया करते थे।
कुर्सियों और चादरों से बना घर
अब जैसे जैसे बड़े होते गए , गर्मी की छुट्टी की ख़ुशी तो उतनी ही रही लेकिन हम जो खेल खेला करते थे उनमे बदलाव आता गया। बड़े जो हो रहे थे। अब दिन के समय हम घर घर खेलते थे लेकिन कुर्सियां और चादर लेकर घर बनाते थे। एक बार तो घर बनाकर जब उसके अंदर गए तो जो कुर्सी पर ऊपर ईंट रखी थी चादर टिकाने के लिए वो जा गिरी मेरे छोटे भाई के सिर पर। वो चिल्लाया और रोने लगा। अब सब उसको चुप करने लगे। उसे चोट लग गयी इस बात का दुःख तो था लेकिन इससे ज़्यादा इस बात का डर कि अब सब पीटे जाएंगे। ऐसे ही जब और बढे होने लगे तो खेल में और बदलाव आया।
गायन प्रतियोगता
अब हम घर घर नहीं खेलते थे। अब हम खेलते थे ‘लिटिल चैंपियंस’। हाँ, टीवी में छोटे बच्चो का सिंगिंग शो आता था , उसने ना जाने क्यों हमे बहुत प्रभावित किया तो अब हम खेलते थे ‘लिटिल चैंपियंस’ और जज होता था हमारा बड़ा भाई क्योंकि उसे गाना पसंद नहीं था। मोमबत्ती या रिमोट को माइक बनाकर गाने गाते थे , जज साहब अपनी टिपण्णी देते थे और फिर जो जीतता था उसे मिलती थी ट्रॉफी, जो घर में ही रखा कोई सामान होता था, और जो हारता था उसे मिलता था सांत्वना। अधिकतर जज साहब अपने छोटे भाई को पहला प्राइज दिया करते थे तो मेरे छोटे भाई और मैंने उन्हें पक्षपाती करार कर दिया था पर कभी उनसे कुछ कह ना पाए क्योंकि आपको बताया था ना कि ज़रा गुस्सैल मिजाज़ के थे वो। आज सब अपनी नौकरियों में व्यस्त हैं और अलग अलग शहरों में हैं पर जब कभी बैठकर वो दिन याद करते हैं तो पूरा घर ठहाकों से गूंजने लगता है। काश! वो दिन लौट आते।
हाँ तो अब हमारे पास थोड़ा पैसा आने लगा जो कभी कभी दे दिया करते थे घरवाले। अब जब हम लिटिल चैंपियंस खेलते तो जीतने वाले को मिलता 5 रुपये वाला बिस्कुट जो बाद में उसे सबके साथ बांटना पड़ता था नहीं तो दूसरे उसे अगली बार कभी साथ खेलने कहाँ देते। कुछ समय बाद हमारी उन्नति हुई और हम 5 रुपये के बिस्कुट से 10 रुपये के बिस्कुट तक पहुंच गए। जो उस बिस्कुट के पैकेट खुलने पर ख़ुशी होती थी हम चारों को, उसकी तो बात ही क्या करूँ।
डांस कॉम्पीटीशन
अब गायिकी कर ही रहे थे तो नृत्य में कैसे पीछे रहते। अब हम डांस डांस भी खेलते थे और हल्के में मत लीजिये एकदम बढ़िया तरीके से हम सोलो और डुएट दोनों ही डांस करते थे। इस कॉम्पिटिशन में तो हमारे पड़ोस के दोस्त भी शामिल होते थे। कॉम्पिटिशन तो ऐसा होता था कि हर प्रत्याशी अलग अलग जगह में तैयारी करता था ताकि दूसरे उसके डांस स्टेप्स कॉपी ना कर लें। जज तो आप सब जानते ही हैं कौन होता होगा और ये भी जानते होंगे कि अधिकतर जीतता कौन होगा और अब ये भी आप जान ही गए होंगे कि इस पक्षपात के खिलाफ हम आवाज़ क्यों ना उठा पाते थे।
छुट्टियां हुई ख़त्म
जैसे जब कोई बढ़िया सपना देख रहें हों और नींद से कोई जगा दे तो बहुत दुःख होता हैं न ऐसे ही जब ये सुनहरे दिन ख़त्म होते थे और फूफाजी का फ़ोन आता था कि वो लेने आ रहे हैं तो घर में मायूसी का माहौल होता था । जिस तरह शुरुआत के दिन में दरवाज़े पर उनकी राह देख रहे होते थे अब ये सोचते थे की आज आ ना जाएं। लेकिन जब वो घर के अंदर आते थे तो ऐसा लगता था हमसे हमारी ख़ुशी छीनकर जा रहे हों। ये तो तय था कि जिस दिन फ़ूफ़ाजी आएंगे उस रात डिनर हम सब साथ करेंगे और फिर कुछ देर बस यही चलता था ‘मत जा यार, मना कर दे , नहीं मेरी नहीं सुनेंगे पापा, तू बोल दे, नहीं तू बोल की 3-4 दिन बाद आना पापा, नहीं तू पापा को बोल दे कि फूफाजी को मना कर दो,’ अभी हमारी मीटिंग चल ही रही होती थी कि वहाँ से फूफाजी की एक आवाज़ और ये दोनों भाग उठते थे। एक दूसरे को मायूसी की नज़रों से देखते हुए हम बाई बाई कहते थे और बस खत्म हमारे वो सुनहरे दिन।
सच बताऊँ तो पता ही नहीं चलता था कि समय कहाँ चला गया। हमने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन हम बड़े हो जाएंगे, कॉलेज जाएंगे, नौकरी करेंगे, शादी होगी, लगता था ऐसे ही तो ज़िन्दगी भर गर्मी की छुट्टियां साथ बिताएंगे लेकिन पता ही नहीं लगा कब, कहाँ, क्या बदला, कब हम इतने बड़े हो गए, सब अपनी अपनी ज़िन्दगी में इतने व्यस्त। अब ना तो गर्मी की वो छुट्टियां हैं ना ही उनका इंतज़ार क्योंकि अब बड़े जो हो गए हैं हम, अब तो सिर्फ गर्मी के मौसम से शिकायत रहती हैं क्योंकि इस मौसम से मौहब्बत तो सिर्फ बचपन में थी। अब ना रहा वो बचपन, ना वो बातें , रह गयी हैं तो सिर्फ बचपन की वो प्यारी सी यादें।
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